वाणिज्य का अर्थ व उसके प्रकार, महत्व, विशेषता क्या है? | Meaning of commerce and its type, importance, specialty Full Information
विषयसूची
वाणिज्य का अर्थ, वाणिज्य क्या है? और इसके अर्थ के साथ-साथ इसका महत्व और व्यावसायिक प्रकार क्या हैं? आज हम इस लेख में जानेंगे कि वाणिज्य का अर्थ वाणिज्य एक बहुत व्यापक शब्द है और वाणिज्य व्यवसाय का एक हिस्सा है जिसमें जोखिम की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। वाणिज्य में क्रय-विक्रय के साथ-साथ उन साधनों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय के विकास में उपयोगी साधन माने जाते हैं।
वाणिज्य का अर्थ
वाणिज्य (कॉमर्स) है। किसी उत्पादन या व्यवसाय का वह भाग जो उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की उनके उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के बीच विनिमय से सम्ब्न्ध रखता है, वाणिज्य कहलाता है। वाणिज्य के अन्तर्गत किसी आर्थिक महत्व की वस्तु, जैसे सामान, सेवा, सूचना या धन का दो या दो से अधिक व्यक्ति या संस्थाओं के बीच सौदा किया जाता है। वाणिज्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं कुछ अन्य अर्थव्यवस्थाओं का मुख्य वाहक है।
वाणिज्य का अर्थ धन प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया कार्य वाणिज्य कहलाता है।
संसार में प्रत्येक व्यक्ति की कई आवश्यकताएँ होती हैं। उनको प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इनमें से कुछ वस्तुएँ तो वह स्वयं बना लेता है और अधिकांश वस्तुएँ उसे बाजार से मोल खरीदनी पड़ती हैं। वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उसे धन की आवश्यकता पड़ती है और इस धन को प्राप्त करने के लिए या तो वह दूसरों की सेवा करता है अथवा ऐसी वस्तुएँ तैयार करता है या क्रय-विक्रय करता है जो दूसरों के लिए उपयोगी हों। वस्तुओं का रूप बदलकर उनको अधिक उपयोगी बनाने का कार्य उद्योग माना जाता है। वाणिज्य में वे सब कार्य सम्मिलित रहते हैं जो वस्तुओं के क्रय-विक्रय में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। जो व्यक्ति वाणिज्य संबंधी कोई कार्य करता है उसे वणिक् कहते हैं।
वाणिज्य का अर्थ वाणिज्य एक व्यापक शब्द है, यह गतिविधि उद्योग द्वारा उत्पादन का काम पूरा करने के बाद शुरू होती है और उपभोक्ता के पास माल पहुंचने पर समाप्त होती है। इस प्रकार वाणिज्य एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को एक दूसरे के करीब लाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उद्योग द्वारा जो भी वस्तुएँ उत्पादित की जाती हैं, वाणिज्य उन्हें उन लोगों तक पहुँचाता है जिन्हें उनकी आवश्यकता होती है। इसमें वे सभी गतिविधियाँ शामिल हैं जो उत्पादन के स्थान से उपभोक्ता तक माल के परिवहन के अंतर्गत आती हैं। दूसरे शब्दों में, इसमें वे सभी गतिविधियाँ शामिल हैं जिनका उद्देश्य वितरण में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। इसलिए वाणिज्य को कला और विज्ञान दोनों माना जाता है।
कुछ विद्वानों द्वारा दी गई वाणिज्य की परिभाषा
डॉ. जेम्स स्टीफेंसन के अनुसार, “वाणिज्य में वे सभी गतिविधियाँ शामिल हैं जो उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच की बाधाओं को तोड़ने में मदद करती हैं। यह उन सभी प्रक्रियाओं का योग है जो व्यक्तियों (व्यवसाय) द्वारा वस्तुओं के स्थानान्तरण (परिवहन और) में शामिल हैं। बीमा) और समय (भंडारण) की कमी।”
समर्थक। एवलिन थॉमस के शब्दों में, “वाणिज्य उन सभी गतिविधियों का संयोजन है जो माल के निर्माण, खरीद, बिक्री और हस्तांतरण से संबंधित हैं।”
वेस्टर शब्दावली कोष के अनुसार, “सामान्य रूप से वाणिज्य का अर्थ व्यक्तियों और राष्ट्रों के बीच किसी भी प्रकार का आदान-प्रदान है।”
वस्तु वस्तु या संपत्ति का आदान-प्रदान है, चाहे वह वस्तु विनिमय द्वारा किया जाता है या खरीद और बिक्री द्वारा “उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि माल उत्पादकों द्वारा उत्पादित किया जाता है और उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग किया जाता है। निर्माता कोई भी गतिविधि जो सीधे मदद करती है और अप्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ताओं को माल के परिवहन में वाणिज्य कहा जाता है।
वाणिज्य के प्रकार (Type Of Commerce )
1) व्यापार (Business )
2) व्यापार के सहायक
वाणिज्य का महत्व (IMPORTANCE OF COMMERCE)
किसी देश के आर्थिक विकास में वाणिज्य का महत्वपूर्ण योगदान पाया जाता है। आज के युग में वही देश विकसित माना जाता है जहाँ पर वाणिज्य उन्नतशील दशा में होता है। वाणिज्य व्यावसायिक क्रियाओं का वह अंग कहा जाता है जिसमें वस्तुओं का क्रय-विक्रय तथा इसकी सहायक क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इससे व्यापार में आने वाली बाधायें तथा रुकावटें दूर हो जाती हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यापार को ठीक प्रकार से चलाने के लिये अनेक प्रकार की सुविधाओं की आवश्यकता होती है। वाणिज्य का मुख्य लक्ष्य वस्तुओं को उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुंचाना है। इसके लिये हस्तान्तरण, एकत्रीकरण, संग्रह, बीमा एवं वित्तीय आदि कार्य किये जाते हैं। इन्हीं कार्यों को वाणिज्य कहा जाता है। इस प्रकार वाणिज्य देश के विकास का मापक होता है।
1. प्राकृतिक साधनों का अधिकतम उपयोग – वाणिज्य क्रियाओं के कारण देश में औद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिलता है। प्राकृतिक साधनों की स्थिति को देखते हुए देश में उद्योगों की स्थापना की जाती है। इसलिए कहा जाता है कि देश में पाये जाने वाले प्राकृतिक साधनों का उपयोग प्रायः देश में पाये जाने वाले प्राकृतिक साधनों तथा मानवीय सम्पदा पर निर्भर करते हैं। यदि नदी का पानी समुद्र में जाकर मिल जाता है तो उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती है, किन्तु जब एक व्यापारी द्वारा उसी नदी पर बांध निर्माण कर जल विद्युत उत्पादन केन्द्र की स्थापना करता है तो स्वाभाविक रूप से जल को उपयोगिता बढ़ जाती है। इस प्रकार वाणिज्य व्यवस्था के कारण प्राकृतिक साधनों का पर्याप्त विदोहन होने लगा।
2. उत्पादन विशिष्टीकरण – आज के समय में उत्पादन कार्य वृहद पैमाने पर विशिष्टीकरण के आधार पर किया जाता है। इसके अन्तर्गत स्वचालित मशीनों, यंत्रों तथा श्रम विभाजन का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। इससे देश को वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त होती है तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं की माँग बढ़ती है तथा व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है। वाणिज्य की इस प्रगति के कारण वस्तु की पर्याप्त मांग होती है तथा आपस में प्रतियोगिता उत्पन्न होती है। इस प्रतियोगिता से बचने के लिये उत्पादक विशिष्टीकरण प्रारम्भ कर देते हैं। इस प्रकार उपभोक्ताओं को कम कीमत पर वस्तुयें प्राप्त होने लगती हैं। यही इसका लाभ होता है।
3. मानवीय साधनों का अधिकतम उपयोग – वाणिज्य एक ऐसा साधन है जो उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों को एक दूसरे के निकट लाने में सहायक होता है। अन्य शब्दों में वाणिज्य उन समस्त क्रियाओं का योग होता है जो वस्तुओं के विनिमय में आने वाले व्यक्ति स्थान तथा समय की बाधाओं को दूर करने में सहायक होते हैं। इसके विकास से न केवल उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन मिलता है वरन् रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होती है तथा मानवीय साधनों का अधिकतम उपयोग होता है। इस प्रकार व्यवसाय तथा वाणिज्य प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही प्रकार के अवसरों में विकास करता है। प्रो. मेकाइल के शब्दों में, व्यवसाय मनुष्य का रचनात्मक साधन है। इस प्रकार लोगों को रोजगार प्राप्त होता है।
4. जीवन स्तर में वृद्धि – वाणिज्य तथा व्यवसाय का जीवन स्तर से प्रत्यक्ष तथा घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इसके विकास से राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। आय में वृद्धि होने के कारण अब लोग पहले से अच्छी तथा अधिक मात्रा में वस्तुओं का उपयोग करने लगते हैं। इस प्रकार लोगों को संतुष्टि मिलती है तथा उनके रहन-सहन का जीवन ऊँचा होता है। यहीं नहीं इसके कारण व्यापार तथा वाणिज्य में सहायता प्रदान करने वाले साधनों का तेजी से विकास होता है। इसका लाभ वहाँ के रहने वालो को प्राप्त होने लगता है। इसी कारण सुख-सुविधाओं का उपभोग संभव हो सका है।
5. सरकारी आय में वृद्धि – वाणिज्य तथा व्यवसाय की प्रगति के कारण सरकारी आय में वृद्धि में होना स्वाभाविक माना जाता है। यदि देखा जाये तो सरकार को अधिकांश मात्रा में आय उद्योग-धंधों में लगाये करों से ही होती है। उदाहरणार्थ, हमारे देश में सर्वाधिक आय आबकारी से ही प्राप्त होती उत्पादन कर के अतिरिक्त आय कर भी सरकारी आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। यह कहना गलत न होगा कि यदि देश में इनका अस्तित्व न हो तो प्रत्यक्ष व परोक्ष करों का भी नाम समाप्त हो जायेगा। यही कारण है कि आज देश की सरकार वाणिज्य एवं उद्योग धन्धों के विकास पर स्वयं ध्यान देती है। अन्त में यह कहना गलत न होगा कि वाणिज्य राजस्व का प्रधान साधन होता है।
6. शिक्षा एवं सांस्कृतिक विकास – वाणिज्य तथा व्यवसाय की प्रगति ने अनेक व्यावसायिक जटिलताओं को जन्म दिया है। इनको हल करने के लिये व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है। इसके लिये शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा का प्रसार किया गया है। इस प्रकार वाणिज्य के कारण शिक्षा के विकास को प्रोत्साहन मिला है। यही नहीं विदेशों के आयात-निर्यात संबंध होने से विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सम्बन्ध कायम होता है तथा उनके विचारों का आदान-प्रदान होता है। इससे सांस्कृतिक विकास को भी बढ़ावा मिलता है। साथ ही साथ इससे तकनीकी ज्ञान में भी वृद्धि होती है। यही आज के वाणिज्य युग की देन हैं।
7. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि – आज विश्व का कोई भी देश शायद ही आत्मनिर्भर हो। इस कमी के कारण ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकास हुआ है। आधुनिक यंत्रों व मशीनों की सहायता से उत्पादन पूर्ण क्षमता के साथ किया जाता है। अपने देश में मांग को पूरा हो जाने के बाद जो अतिरिक्त उत्पादन होता है उसे अन्य देशों को भेज दिया जाता है। इससे प्राप्त कर्त्ता देश में इसका श्रेष्ठतम उपयोग किया जाता है तथा भेजने वाले देश को पर्याप्त लाभ भी होता है। इसलिए कहा जाता है कि वाणिज्य तथा उद्योग-धंधों की उन्नति तथा विकास के कारण ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का जन्म हुआ। यही कारण कि आज अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भावना इसी आयात-निर्यात के फलस्वरूप विभिन्न देशों के मध्य पायी जाती है।
भारत में वाणिज्य का इतिहास
भूत काल में, भारत भी वाणिज्य संबंधी कार्यों में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। प्राचीन आर्यों की आर्थिक व्यवस्था का पता वैदिक साहित्य से लगता है। वैदिक काल से ही द्रविड़ तथा आर्य लोगों ने मिस्र, असीरिया और बैबिलोन से व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंध स्थापित किए। ईसामसीह के सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही भारत में शिल्प और वाणिज्य का सर्वांगीण विकास हुआ। वणिकों के संघों का उल्लेख उस समय के साहित्य में मिलता है। उस समय के विदेशी यात्रियों ने यहाँ के उन्नत उद्योग धंधे और वाणिज्य की बड़ी प्रशंसा की है। भारत के करीब तीन हजार वर्षों तक समुद्र पर अपना प्रभुत्व जारी रखा और अपने व्यापार और वाणिज्य की खूब उन्नति की। वह सैकड़ों वर्षों तक संसार का नेता और वाणिज्य का केंद्र बना रहा। उस काल में भारतवासियों ने वाणिज्य में अपने लाभ के साथ ही साथ दूसरों को लाभ पहुँचाने का हमेशा ध्यान रखा है।
मुगल काल में भी भारत के गृह उद्योग उन्नत दशा में थे और एशिया, यूरोप और अफ्रीका के अनेक देशों में यहाँ से तैयार माल जाता था। संसार के कई देश तो केवल भारत के वस्त्रों पर ही निर्भर रहते थे। सूती, रेशमी तथा ऊनी वस्त्र तैयार करनेवाले भारतीय कारीगरों का कौशल संसार में दूर दूर तक फैल गया था। वस्त्रों के अतिरिक्त मोती, मूँगा, हाथीदाँत, मसाले, सुगांधित द्रव्य इत्यादि का भी खूब रोजगार होता था।
भारत से वाणिज्य द्वारा लाभ उठाने की इच्छा से ही यूरोपवासियों ने भारत में पदार्पण किया और उसके व्यापार पर कब्जा करने का प्रयत्न किया।
वाणिज्य को प्रभावित करने वाले कारक
किसी देश के उद्योग धंधों की दशा का उसके वाणिज्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जिस देश में उद्योग धंधों द्वारा वस्तुओं की उत्पत्ति बराबर बढ़ती रहती है, उसका वाणिज्य भी उन्नत दशा में रहता है। किसी देश के वाणिज्य की उन्नति उसके यातायात के साधनों की दशा पर बहुत कुछ निर्भर रहती है। पहाड़ी देशों में, जहाँ सड़कों का प्राय: अभाव रहतो है, वाणिज्य और व्यापार पिछड़ी हुई दशा में रहता है। रेलों के प्रचार और समुद्री जहाजों की उन्नति से बीसवीं सदी में संसार के अधिकांश देशों में वाणिज्य की वृद्धि में बहुत सहायता मिली है। अब वायुयान द्वारा भी कीमती वस्तुओं का व्यापार होने लगा है। वाणिज्य का अर्थ इससे भी वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला है।
जब किसी देश में अशांति रहती है और चोर तथा डाकुओं का भय बढ़ जाता है, तब उसके वाणिज्य पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। वाणिज्य की उन्नति में एक और बाधा उस आयातकर की होती है, जो कोई देश अपने उद्योग धंधों को दूसरे देशों की प्रतियोगिता से बचाने के लिए कुछ वस्तुओं के आयात पर लगाता है।
वाणिज्य में धनप्राप्ति की भावना ही प्रधान रहती है। कभी कभी स्वार्थ की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वणिक् लोग वस्तुओं में मिलावट करके बेचते हैं, माल के तौलने में बेईमानी करते हैं और झूठे विज्ञापन देकर अथवा चोरबाजारी करके अपने ग्राहकों को ठगने का प्रयत्न करते हैं। वे इस बात का विचार नहीं करते कि उनके इन प्रयत्नों से दूसरों की क्या हानि होती है। वे अपने कर्तव्य या धर्म का कोई विचार नहीं करते, इसी कारण हमारे वणिक् धनवान् होने पर भी असंतुष्ट बने रहते हैं और जीवन को शांतिमय नहीं बना पाते। जब वणिक् अपने सामने उच्च आदर्श रखेंगे और अपने सब कार्यों में दूसरों के स्वार्थों का उतना ही ध्यान रखेंगे जितना वे अपने स्वार्थों का रखते हैं तब वाणिज्य भी धनोपार्जन के साथ ही साथ सुख और शांति का भी साधन हो जावेगा।
लाभ –
(i) वृहत पैमाने पर उत्पादन तथा उपभोग सम्भव होता है।
(ii) पर्याप्त मात्रा में उत्पादन के कारण कीमतों में स्थिरता पायी जाती है।
(iii) इससे औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है।
(iv) वाणिज्य के कारण तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई।
(v) व्यापारिक क्रियाओं के सामाजिक जीवन में पर्याप्त सुधार आया है तथा देश व लोगों का जीवन स्तर ऊंचा हुआ है।
(vi) वाणिज्य के कारण ही व्यापार को बढ़ावा मिलता है। इससे वस्तुओं का अभाव नहीं अनुभव होता हैं।
(vii) इसके माध्यम से रोजगार में वृद्धि होती है तथा निर्धनता में कमी आने लगती है।
(viii) वाणिज्य की शिक्षा प्रदान करके देश के नवयुवकों को सफल व्यापारी बनाया जा सकता है।
(ix) वाणिज्य के विकास ने सभ्यता, तथा संस्कृति को प्रोत्साहित किया है। यही वाणिज्य का सार पाया जाता है।
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